गुरुवार, 8 जनवरी 2009

भोर का मेला, वर्णन की बेला


भोर हुई है सुबह की लाली,
चिडियाँ चहक रही है . .
कलियों ने घूंघट हैं खोले,
हवा भी महक रही है

किस लय पर है ओस की बूँदें,
टप-टप टपक रही है . .
सूरज-कर संग ओस के कण मिल,
चांदी सी चमक रही है . .

नदी का दर्पण नीला अम्बर,
छाया झलक रही है . .
टकराए जब रवि-किरण तो,
सोने सी दमक रही है . .

गाँव की गोरी संग है किशोरी,
चूड़ी खनक रही है . .
नीर भरन को जाए पनघट,
पायल छनक रही है . .

काठ की लकड़ी चूल्हे में है,
आग भी दहक रही है . .
चूल्हे पर कोई चाय चढ़ी है,
पतीले से छलक रही है . .

मासूम है अभी स्वप्न लोक में,
पलकें झपक रही है . .
मैया उठाए,मन ना भाए,
-जैसे बिजली कड़क रही है . .

बैलों के गले में घंटी बंधी है,
घुँघरू झनक रहे हैं . .
जीवन का कोई राग है इसमें,
सरगम छलक रहे है . .

खेत पे जाए हलधर-हल,
काँधे पर लटक रहे हैं . .
गाँव के छोरे,अल्हड़ भोले,
यूं ही भटक रहे हैं . .

हाथ किसान के धान की बाली,
सिल पर पटक रहे हैं . .
नन्हीं गुड़िया कदम बढाए,
-चाहे कितने भी अटक रहे हैं . .

छिन्यो कान्हो माखन तो गोपी,
मटकी पटक रही है . .
जब वो बजाए मधुर मुरलिया,
तो राधा मटक रही है . .