गुरुवार, 29 जनवरी 2009

हँसी और मुस्कान


हँसी का कोई मोल नहीं,
फ़िर भी ये अनमोल |
हँसी के मोती खूब बिखेरो,
कभी करो नहीं तोल ||

सभ्यता की रस्सी से तूने,
हँसी को पकड़ लिया |
अपनी ही मुट्ठी में अपना,
जीवन जकड़ लिया ||

महलों में सब बैठे हैं पर,
सुख का कोना खाली |
हँसी की बंसी सब बजाओ,
बैठ कदम्ब की डाली ||

हँसी का रस तो लुप्त हो गया,
भौतिक रस है छाया |
"राग-मल्हार" को गाना था,
पर "दीपक-राग" को गाया ||

सौ रोगों की हँसी दवा है,
रोग को दूर भगाती |
रोग मौत है - हँसी है जीवन,
जीवन पास में लाती ||

खिले फूल से बगिया महके,
सभी के मनको भाते |
इन्हें देखने बूढे-बच्चे,
दूर-दूर से आते ||

जीवन की इस बगिया में,
तुम हँसी के फूल खिलाओ |
हँसी की भीनी-भीनी खुशबू,
इस जग को महकाओ ||

जहाँ भी जाओ खूब हंसाओ,
ये तो ऐसा खजाना है |
जितना बांटों उतना बढ़ेगा,
ये तो बढ़ते जाना है ||

मौके-बेमौके पर हँसना,
इससे प्यारे बचना |
विवेकशील नहीं बन पाओगे,
मूर्ख की होगी रचना ||

फ़कीर की मस्ती को देखो,
नहीं है कौड़ी पैसा |
हंसकर चिमटा लेकर गाए,
कोई राजा हो जैसा ||

हँसते हुओं को जो आंसूं दे,
वो तो नहीं महान |
रोते हुओं को जो हैं हंसाते,
वो हैं जग की शान ||

हंसकर जीने वाले ही,
इस जग से हंसके जाएँगे |
खाली हाथ आना-जाना ये,
झोली भर ले जाएँगे ||

रविवार, 25 जनवरी 2009

आसां और मुश्किल


झगडा करना आसां हैं।
पर प्यार बढ़ाना मुश्किल |
कर झगडा समझौता चाहे,
खाई पटना मुश्किल ||

इज्ज़त खोना आसां है,
पर मान बढ़ाना मुश्किल |
पैसा देकर नामुमकिन है,
इसको पाना मुश्किल ||

घर को तोड़ना आसान है,
पर इसे बनाना मुश्किल |
तोड़ के घर को जोड़ना चाहो,
इसे बसाना मुश्किल ||

पेड़ को काटना आसां है,
पर वृक्ष लगाना मुश्किल |
बोए बीज का अंकुर फूटे,
सालों सींचना मुश्किल ||

खर्चा करना आसां है,
पर पैसा बचाना मुश्किल |
वादा करना आसां है,
पर इसे निभाना मुश्किल ||

बातें करना आसां है,
पर पूरी करना मुश्किल |
चलते हुओं को रोकना आसां,
धूरी बनना मुश्किल ||

बात बताना आसां है,
पर भेद छुपाना मुश्किल |
कड़वे-तीर चलाना आसां,
बेद को गाना मुश्किल ||

सहानुभूति की मरहम पट्टी,
मीठी बोली मुश्किल |
दुर्नामों की बोरी आसां,
नाम की झोली मुश्किल ||

आलस में रत रहना आसां,
काम को करना मुश्किल |
क़र्ज़ को लेना आसां है,
पर दाम चुकाना मुश्किल ||

रामायण को पढ़ना आसां,
सीता बनना मुश्किल |
कौरव के किरदार घनेरे,
गीता बनना मुश्किल ||

सुख में छेद को करना आसां,
पीड़ा उठाना मुश्किल |
भार बढ़ाना आसां है, पर
बीड़ा उठाना मुश्किल ||

हारे हुओं को हिम्मत देकर,
धीर बंधाना मुश्किल |
जीवन पथ में भटके हुओं को,
तीर दिखाना मुश्किल ||

मुंह को खोलना आसां है,
पर धीरज धरना मुश्किल |
धीरज धरके - सेवा करके,
नीरज बनना मुश्किल ||

जंग को करना आसां है,
पर संग निभाना मुश्किल |
संग निभाकर ख़ुद को तो,
सतरंग बनाना मुश्किल ||

कपट कलेवर बनना आसां,
सच्चा बनना मुश्किल |
झूठ बदी सब आसां है,
पर अच्छा बनना मुश्किल ||

बात बनाना आसां है,
पर भजन बनाना मुश्किल |
कृष्ण मनाना आसां,
भजन को प्रेम से गाना मुश्किल ||

सोमवार, 19 जनवरी 2009

सुख दुःख भाई-भाई


लेख विधि ने जो लिख डाले,
ख़ुद ही विधि के टरत ना टाले |

लिखे माल के अंक ना मिटते,
सुख-दुःख हरदम कभी ना टिकते |

सुख पाकर के जो इतराए,
ना जाने कब दिन फ़िर जाए |

शैब्या थी हरिश्चंद्र की रानी,
राजा के दिल की पटरानी |

राजा ने जब राज को त्यागा,
गली-गली वो फिरे अभागा |

हरिश्चंद्र के दिल की पटरानी,
बेच रहे ख़ुद राजा दानी |

बेटा बेचा बेचीं रानी,
ख़ुद करते मरघट निगरानी |

समय को कोई जान ना पाए,
क्या जाने कब क्या करवाए |

घमंड करे और कुछ भी बोले,
मोटे बोल राम को तोले |

सुख के बादल जब हैं छाए,
छप्पन भोग भी रास ना आए |

कभी तो सूखी रोटी भाए,
छप्पन भोग का स्वाद चखाए |

मखमल पर भी नींद ना आए,
टाट-पटोरे भी सुख के साए |

यही तो है सुख-दुःख का फेरा,
सभी को बनना पड़ता चेरा |

दुःख-सुख को जो बंधु बनाए,
सभी हाल में मौज मनाए |

मौज मनाना ही जिंदगानी,
दूध मिले या मिल जाए पानी |

खुशी के संग में दुःख को झेलें,
दुःख भी सुख बनकर के खेले |

सुख पाकर के मत इतराओ,
दुःख में भी तुम मत घबराओ |

दोनों को तुम गले लगाओ,
दोनों के संग मौज मनाओ |

शनिवार, 17 जनवरी 2009

हिन्दी की दुर्गति


देश तो स्वतन्त्र हुआ पर,
अब भी वो गुलाम है |
खदेड़ दिया अंग्रेजों को पर,
अंग्रेज़ी तो यहाँ की शान है ||

पढ़-पढ़ कर अंग्रेज़ी सबने,
इसको सागर बना दिया |
हिन्दी की नदियों को सबने,
इस सागर में समां दिया ||

बेगाना हो गया अपना घर,
अपने ही घर में पराई है |
खदेड़ दिया अंग्रेजों को पर,
अंग्रेज़ी तो हर जगह छाई है ||

नाम मिला है राष्ट्र की भाषा,
पद-गरिमा ना मिल पाई |
पद की जगह बैशाखी मिल गई,
लंगड़ी बनी सब हरजाई ||

राष्ट्र की भाषा हिन्दी है,
इस राष्ट्र की शक्ति हिन्दी है |
जीवन-प्रवाह भी हिन्दी है,
संस्कृति हमारी हिन्दी है ||

राष्ट्र-एकता की कड़ी है हिन्दी,
संस्कृत से ये आई है |
दुश्मन थे अंग्रेज़ तो क्या,
अंग्रेज़ी तेरा भाई है ||

अंग्रेज़ी का परचम लहरा,
हिन्दी कितनी झुकी-झुकी सी है |
अपने देश में वृद्ध हुई ये,
साँसें देखो, रुकी-रुकी सी है ||

अंग्रेज़ी पढने वालों तुमको,
हिन्दी की दुहाई है |
अंग्रेज़ी तेरी रिश्तेदार,
पर हिन्दी तेरी माई है ||

अपनी भाषा के संग रहकर,
सब भाषा से रिश्ता जोड़ |
पर हिन्दी सबसे ऊपर है,
हिन्दी से ना रिश्ता तोड़ ||

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

अनुभव


कुछ लोग जीते जाते हैं,
उम्र को पीते जाते हैं,
धीरे-धीरे वृद्धों की श्रेणी में जाते हैं,
पर अनुभव नहीं लेने के कारण,
अनुभव-ज्ञान में कोरे ही रह जाते हैं..

बालों में सफेदी छा जाती है,
पर इसमें अनुभवता की
छाप नहीं आती है,
चेहरे पर झुर्रियाँ गुजरे कितने ही,
मौसमों की कहानी कहती है,
पर अनुभव में ये झुर्रियाँ,
ज्ञान-बरी रहती है..

पर कुछ लोग जीवन से लेने वाले,
बचपन से ही संग्रह करते हैं,
अनुभवों को भरते हैं,
उम्र में भले ही बच्चे हैं,
पर अनुभव ज्ञान में अच्छे हैं..

जहाँ भी जाते हैं,
वहाँ से कुछ लेकर आते हैं,
तो कुछ देकर भी जाते हैं,
लेकर-देकर जीवन को ये
भव्य बनाते हैं,
चाँद-रुपी जीवन को अनुभव-रुपी
तारों से सजाते हैं..

छोटी से छोटी बात को भी
जीवन में गुनाते हैं,भुनाते हैं,
और अनुभव की खान बन जाते हैं,
"घाट-घाट का पानी पीना"
वाले मुहावरे को,
कर्म से बताते हैं,
अपने अनुभव का डंका
हर जगह बजाते हैं..

रविवार, 11 जनवरी 2009

दर्पण


जिसने जो दिया उसने वो पाया,
ठीक वैसे ही जैसे दर्पण झूठ नहीं बोलता
उसने हर हाल को जस का तस बतलाया..

बचपन में बचपन को नहीं छिपाया,
जवानी में सुन्दरता का राज़ बताया,
पचपन में मुरझे चेहरे को दिखलाया
और मनोविज्ञानी की तरह सामने वाले को समझाया,

मैं तो आज भी वही हूँ ख़ुद को ना बदलाया,
वो बचपन का भोलापन,जवानी की खिलखिलाहट को
किस तिजोरी में छिपाया..

बचपन से पचपन तक आते-आते छल,कपट,कड़वाहट रुपी
कैंसर की बिमारी को इस शरीर में कहाँ-कहाँ लगाया..
और इस बिमारी से कितनों को सताया..

कोई नहीं जानता कि ऊपर जा कर किस-किस ने स्वर्ग को पाया..
अभी भी समय है कुछ दवा-दारु कर,आज का जो वक्त है,
इसे स्वर्ग बना, शांति से जी, दूसरों को बख्श दे
इस भयंकरतम बीमारी से और अपनी भी बचाले ये काया..

जिसने जो दिया उसने वही पाया,
ठीक वैसे ही जैसे मैनें जो देखा वही दिखलाया,
कभी भी झूठ नहीं बतलाया..
बचपन से लेकर पचपन तक का प्रकरण ज्यों का त्यों बतलाया..

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

भोर का मेला, वर्णन की बेला


भोर हुई है सुबह की लाली,
चिडियाँ चहक रही है . .
कलियों ने घूंघट हैं खोले,
हवा भी महक रही है

किस लय पर है ओस की बूँदें,
टप-टप टपक रही है . .
सूरज-कर संग ओस के कण मिल,
चांदी सी चमक रही है . .

नदी का दर्पण नीला अम्बर,
छाया झलक रही है . .
टकराए जब रवि-किरण तो,
सोने सी दमक रही है . .

गाँव की गोरी संग है किशोरी,
चूड़ी खनक रही है . .
नीर भरन को जाए पनघट,
पायल छनक रही है . .

काठ की लकड़ी चूल्हे में है,
आग भी दहक रही है . .
चूल्हे पर कोई चाय चढ़ी है,
पतीले से छलक रही है . .

मासूम है अभी स्वप्न लोक में,
पलकें झपक रही है . .
मैया उठाए,मन ना भाए,
-जैसे बिजली कड़क रही है . .

बैलों के गले में घंटी बंधी है,
घुँघरू झनक रहे हैं . .
जीवन का कोई राग है इसमें,
सरगम छलक रहे है . .

खेत पे जाए हलधर-हल,
काँधे पर लटक रहे हैं . .
गाँव के छोरे,अल्हड़ भोले,
यूं ही भटक रहे हैं . .

हाथ किसान के धान की बाली,
सिल पर पटक रहे हैं . .
नन्हीं गुड़िया कदम बढाए,
-चाहे कितने भी अटक रहे हैं . .

छिन्यो कान्हो माखन तो गोपी,
मटकी पटक रही है . .
जब वो बजाए मधुर मुरलिया,
तो राधा मटक रही है . .