मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

"हाय" - कहती सुख को बाय

मेरी माँ के जन्मदिन पर विशेष
पहले मनवा सोच ले,
फ़िर मुख से कछु बोल |
निज पर डारि के देखि ले,
मन के तराजू तोल ||

जो बात कहे औरन के लिए,
ये बात क्या तुझको भाय ?
फ़िर तू क्यूँ बोले, पर दुःख तोले,
लेता है क्यों हाय ?

जो बात किसी के मन को दुखे,
और आंत-आंत जल जाय |
दुःख भरे मन से जलती आंत से,
हरदम निकले हाय ||

बुरी बात दिल ऐसे लागे,
जैसे आग कोई जल जाय |
जलते हैं जैसे भानु-कृशानु,
दावानल लग जाय ||

बुरी बात से मन आसमां,
क्षत-विक्षत हो जाय |
तन को डॉक्टर जोड़ सके पर
मन कोई जोड़ ना पाय ||

कहके ना सोचो, सोच के बोलो,
मत लो किसी की हाय |
बाय-बाय कर सुख को भगाता,
इतनी बुरी है हाय ||

हाय से भारी पत्थर फूटे,
हाय से मिलती पीर |
सुख से दुःख की और तू जाता,
पलटाए तकदीर ||

दुश्मन से तू भाग सके है,
'हाय' से कैसे भागे ?
आत्म-सरीखी सूक्ष्म है 'हाय',
चलती है तेरे आगे ||

सुने भागवत, रामकथा और
दिया थोड़ा ध्यान |
कर्म में आया-मन ना समाया,
रह गया कोरा ज्ञान ||

निगमागम सब शास्त्र बताए,
कहते वेद पुराण |
कहे भागवत तुलसी रामायण,
गीता और कुरान ||

सबने यही एक बात बताई,
एक बताया सार |
सुख देकर के दुःख को ले लो,
दुःख से दुःख का भार ||